फिर वही शाम…
आज फिर वही शाम लौट आई है। भीतर कुछ टूटकर फैल गया है, जैसे किसी खाली कमरे में अचानक हवा की सरसराहट भर जाए और आपको याद दिला दे कि बहुत-सी चीज़ें हमने संभालकर नहीं रखीं, बस यूँ ही समय की धूल में खोने दीं। मैं कोशिश करता हूँ खुद को समझाने की कि सब ठीक है मैं संभल चुका हूँ, दिल की परतों पर जमा चोट अब उतनी नहीं चुभती पर सच्चाई ये है कि कुछ खालीपन कभी नहीं भरता। अजीब है ये एहसास जैसे किसी ने धीरे से मेरे भीतर से कुछ खींचकर अलग कर दिया हो, और मैं हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ लेना चाहता हूँ, पर वो हमेशा थोड़ा दूर, थोड़ा धुंधला, थोड़ा बेकाबू रहता है। कभी लगता है कि वो मेरा ही एक हिस्सा था, कोई एहसास, कोई रिश्ता, कोई पुरानी गर्माहट जो अब हवा में तैरकर मुझसे दूर जा रही है। और मैं बैठे-बैठे उसे वापस छू लेने की कोशिश करता हूँ, जैसे इंसान उन लम्हों को छूना चाहता है जो कभी उसके थे पर अब सिर्फ यादों की तरह फिसल जाते हैं। कभी-कभी लगता है कि इंसान खुद से ही बिछड़ जाता है। एक दिन सुबह उठता है और पाता है कि दिल का आधा हिस्सा कहीं और जा चुका है, कहीं बहुत दूर, ऐसी जगह जहाँ हाथ पहुँचते-पहुँचते थक जाते हैं। शायद...